मीठा कड़वा, नटी या कॉफी फ्लेवर; कैसे आता है चॉकलेट में अलग-अलग स्वाद?

नई दिल्ली। चॉकलेट का नाम लेते ही मुंह में मिठास घुल जाती है। कोई इसे मीठा पसंद करता है, तो किसी को हल्की कड़वाहट वाली डार्क चॉकलेट भाती है। कभी इसमें कॉफी की झलक मिलती है, तो कभी नट्स और बेरी जैसा स्वाद, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर ये अलग-अलग स्वाद आते कहां से हैं?

ज्यादातर लोग मानते हैं कि चॉकलेट का स्वाद सीधे कोको बीन्स से मिलता है, लेकिन हकीकत इससे कहीं ज्यादा दिलचस्प है। चॉकलेट का असली जादू छिपा है फर्मेंटेशन के उस प्रोसेस में, जहां माइक्रोब्स चॉकलेट के स्वाद को नया रूप देते हैं।

सिर्फ बीन्स से नहीं आता चॉकलेट का स्वाद

कोको बीन्स असल में कड़वी होती हैं। अगर इन्हें सीधे खाया जाए तो स्वाद खराब लगेगा। ऐसे में, इन बीन्स को कोको फल से निकालने के बाद कुछ दिनों तक ढेर में छोड़ दिया जाता है। यहीं से शुरू होती है फर्मेंटेशन प्रक्रिया।

वातावरण में मौजूद यीस्ट और बैक्टीरिया बीन्स के गूदे पर सक्रिय हो जाते हैं। यही सूक्ष्मजीव बीन्स की संरचना को तोड़ते हैं और ऐसे कंपाउंड बनाते हैं, जो बाद में रोस्टिंग के दौरान चॉकलेट का खास फ्लेवर देते हैं।

चॉकलेट के स्वाद के पीछे छिपे कलाकार

वैज्ञानिकों का मानना है कि माइक्रोब्स चॉकलेट के स्वाद के असली कलाकार हैं। कोलंबिया के अलग-अलग जिलों में हुए एक अध्ययन से पता चला कि हर क्षेत्र की बीन्स का स्वाद अलग होता है। यह अंतर बीन्स की नस्ल से नहीं, बल्कि वहां एक्टिव माइक्रोब्स से आता है।

कुछ खास यीस्ट जैसे टोरुलास्पोरा और सैकेरोमाइसिस से चॉकलेट का स्वाद और भी गाढ़ा और समृद्ध बनता है। यानी जिस तरह संगीत में अलग-अलग वाद्ययंत्र मिलकर धुन को खास बनाते हैं, उसी तरह माइक्रोब्स मिलकर चॉकलेट को उसका अनोखा स्वाद देते हैं।

क्यों बदलता है स्वाद?

हर क्षेत्र का वातावरण अलग होता है- तापमान, नमी और पीएच लेवल में फर्क होता है। यही परिस्थितियां तय करती हैं कि किस तरह के माइक्रोब्स ज्यादा एक्टिव होंगे। नतीजा यह निकलता है कि एक ही जेनेटिक पृष्ठभूमि वाली बीन्स अलग-अलग इलाकों में अलग स्वाद देती हैं।

यह कहना गलत नहीं होगा कि चॉकलेट का स्वाद केवल बीन्स की किस्म पर नहीं, बल्कि उस जगह की मिट्टी, मौसम और फर्मेंटेशन प्रक्रिया पर निर्भर करता है। यही कारण है कि न्यूयॉर्क, स्विट्जरलैंड या कोलंबिया की चॉकलेट में अलग-अलग फ्लेवर महसूस होते हैं।

वैज्ञानिकों की जांच और नतीजे

नॉटिंघम यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने कोको बीन्स से तैयार “कोको लिकर” का स्वाद एक पैनल से टेस्ट कराया। पाया गया कि कुछ जिलों की बीन्स में नट्स, बेरी और कॉफी जैसे फ्लेवर थे, जबकि कुछ जगहों की बीन्स का स्वाद फीका और कड़वा निकला। इससे साबित हुआ कि फ्लेवर का अंतर माइक्रोब्स और फर्मेंटेशन के कारण ही होता है।

डिजाइनर चॉकलेट

अब वैज्ञानिक इस दिशा में और आगे बढ़ रहे हैं। उनका लक्ष्य है कि फर्मेंटेशन में सही माइक्रोब्स को चुनकर और नियंत्रित करके “डिजाइनर चॉकलेट” बनाई जाए।

सोचिए, अगर बाजार में ऐसी चॉकलेट आए जिसमें खासतौर पर स्वीट बेरी का टेस्ट, गाढ़ा कॉफी फ्लेवर या नट्स की झलक पहले से तय की गई हो, तो यह उपभोक्ताओं के लिए एक नया अनुभव होगा। जैसे आज हम आइसक्रीम या कॉफी के अलग-अलग फ्लेवर चुन सकते हैं, वैसे ही भविष्य में चॉकलेट भी पूरी तरह से कस्टमाइज्ड स्वाद में उपलब्ध हो सकती है।

सिर्फ स्वाद ही नहीं, संस्कृति भी

चॉकलेट का स्वाद केवल वैज्ञानिक प्रक्रिया का नतीजा नहीं है, बल्कि यह संस्कृति और परंपरा से भी जुड़ा हुआ है। अलग-अलग देशों में लोग अलग तरह की चॉकलेट पसंद करते हैं। उदाहरण के लिए, यूरोप में लोग स्मूद और मीठी चॉकलेट पसंद करते हैं, जबकि अमेरिका में डार्क और थोड़ी कड़वी चॉकलेट की मांग ज्यादा है।

फर्मेंटेशन और माइक्रोब्स की समझ के साथ अब यह संभव होगा कि हर संस्कृति और बाजार के हिसाब से चॉकलेट तैयार की जा सके।

चॉकलेट का स्वाद जितना मीठा है, उसका विज्ञान उतना ही गहरा और रोचक है। छोटे-छोटे अदृश्य जीव यानी माइक्रोब्स ही असली कारीगर हैं, जो कड़वी बीन्स को लाजवाब चॉकलेट में बदल देते हैं। फर्मेंटेशन की यही प्रक्रिया तय करती है कि आपकी चॉकलेट नट्स जैसी लगेगी, कॉफी जैसी या फिर बेरी जैसी।

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