
नई दिल्ली। ईरान और इजरायल के बीच 12 दिनों के संघर्ष के बाद सीजफायर से तेल बाजार में एक अजीब स्थिति पैदा हो गई है। युद्ध की वजह से होर्मुज जलडमरूमध्य के बंद होने की आशंका थी।
इससे तेल की कीमतों में भारी उछाल आने के आसार थे लेकिन, वास्तविकता बिल्कुल उलट है।फारस की खाड़ी से कच्चे तेल की बड़ी लहर उठ रही है।
यह लहर ऐसे वैश्विक तेल बाजार में प्रवेश कर रही है जो पहले से ही तेल से लबालब है। इसी वजह से ब्रेंट क्रूड मंगलवार को 70 डॉलर प्रति बैरल से नीचे चला गया।
उत्तरी गोलार्ध यानी नॉर्दर्न हेमिस्फेयर में गर्मी का मौसम तेल की मांग को थोड़ा बढ़ा देता है लेकिन, इसके बाद तेल की अधिक सप्लाई की समस्या और भी स्पष्ट हो जाएगी। तेल की कीमतें बहुत तेजी से गिरने वाली हैं।
इस युद्ध ने 2025 ही नहीं, बल्कि 2026 में भी तेल की मांग और सप्लाई के बीच के अंतर को और बढ़ा दिया है। यह और बात है कि भारत के लिए यह स्थिति अच्छी है।
कच्चे तेल की कीमतों का घटना भारत के लिए हमेशा अच्छा होता है।भू-राजनीतिक अस्थिरता कारोबार और पर्यटन के लिए अच्छी नहीं है। इससे तेल की खपत में बढ़ोतरी और भी कम हो जाएगी।
खासकर मध्य पूर्व में इसका असर ज्यादा दिखेगा। लेकिन, सबसे बड़ा बदलाव तेल की सप्लाई में देखने को मिल रहा है।बाजार में तेल की भरमार है।
ईरान भी पहले से ज्यादा तेल का उत्पादन कर रहा है। ईरान अपने तेल निर्यात को छिपाने की पूरी कोशिश करता है। इसलिए, सही आंकड़े मिलना मुश्किल है।
सात सालों में सबसे ज्यादा तेल
फिर भी सैटेलाइट तस्वीरों और जहाजों से मिले डेटा से पता चलता है कि ईरान का तेल उत्पादन इस महीने 35 लाख बैरल प्रति दिन से ऊपर पहुंच जाएगा। यह पिछले सात सालों में सबसे ज्यादा होगा।
यह बात ध्यान देने वाली है कि इजरायल और अमेरिका की बमबारी के बावजूद ईरान का तेल उत्पादन कम नहीं हुआ है, बल्कि बढ़ गया है।
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दो बातें स्पष्ट कर दी हैं। वह तेल की कीमतों को 70 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर नहीं जाने देना चाहते। उन्हें अभी भी लगता है कि वाशिंगटन और तेहरान के बीच बातचीत हो सकती है।
इसलिए, यह बहुत कम संभावना है कि व्हाइट हाउस ईरान पर तेल प्रतिबंधों को और कड़ा करेगा। इस मामले में ट्रंप पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडेन की तरह ही हैं। वह बातें तो बहुत करते हैं, लेकिन काम बहुत कम करते हैं।
इन देशों का तेल उत्पादन भी बढ़ा
फारस की खाड़ी के पार सऊदी अरब, कुवैत, इराक और संयुक्त अरब अमीरात सभी एक महीने पहले की तुलना में अधिक तेल का उत्पादन कर रहे हैं।
यह सच है कि ओपेक+ देशों के उत्पादन कोटा बढ़ाने के समझौते के बाद उत्पादन में बढ़ोतरी की उम्मीद थी।
फिर भी, शुरुआती शिपिंग डेटा से पता चलता है कि निर्यात उम्मीद से थोड़ा अधिक बढ़ रहा है। खासकर सऊदी अरब से।
पेट्रो-लॉजिस्टिक्स SA एक तेल टैंकर-ट्रैकिंग फर्म है।इसका इस्तेमाल कई कमोडिटी ट्रेडिंग हाउस और हेज फंड करते हैं।
इस फर्म का अनुमान है कि सऊदी अरब जून में बाजार को 96 लाख बैरल प्रतिदिन कच्चे तेल की सप्लाई करेगा। यह दो साल में सबसे अधिक होगा।
यह फर्म कुओं से निकलने वाले तेल की मात्रा के बजाय बाजार में आने वाले तेल की मात्रा को मापती है। ओपेक कुओं से निकलने वाले तेल की मात्रा को मापना पसंद करता है।
पेट्रो-लॉजिस्टिक्स के प्रमुख डेनियल गेर्बर का कहना है, ‘महीने के पहले भाग को देखते हुए फारस की खाड़ी क्षेत्र से तेल का एक बड़ा प्रवाह हो रहा है।’
जून के पहले कुछ हफ्तों के आंकड़ों से पता चलता है कि इराक और UAE से मजबूत निर्यात हो रहा है। ये दोनों देश आमतौर पर ओपेक+ उत्पादन स्तरों पर धोखा देते हैं।
यहां जोखिम कम नहीं, बल्कि ज्यादा है।इसके बाद अमेरिकी शेल तेल उत्पादन की बात आती है। मई में अमेरिकी तेल उद्योग मुश्किल में था।
कच्चे तेल की कीमत 55 डॉलर प्रति बैरल के करीब थी। इन कीमतों पर अमेरिकी तेल उत्पादन में साल के दूसरे भाग में थोड़ी गिरावट शुरू होने वाली थी।
2026 में यह और भी गिर जाता।हाल के संघर्ष ने कच्चे तेल को 78.40 डॉलर प्रति बैरल के शिखर पर पहुंचा दिया।
इससे अमेरिकी शेल उत्पादकों को आगे की कीमतों को लॉक-इन करने का एक अप्रत्याशित अवसर मिल गया। इससे उन्हें पहले की तुलना में अधिक ड्रिलिंग जारी रखने में मदद मिली।
भारत के लिए क्यों अच्छा?
भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक है। अपनी 85% से अधिक तेल जरूरतों को वह आयात के जरिए पूरा करता है।
क्रूड की कीमतों के घटने पर भारत का तेल आयात बिल काफी कम हो जाता है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ा वरदान है।
कम आयात बिल से विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव कम होता है, रुपये को स्थिरता मिलती है और व्यापार घाटा कम होता है।तेल की कीमतें सीधे तौर पर परिवहन लागत और विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन लागत को प्रभावित करती हैं।
कम तेल की कीमतें कम ईंधन लागत में तब्दील होती हैं। इससे ट्रकों, ट्रेनों और अन्य परिवहन साधनों से माल ढुलाई सस्ती हो जाती है।
यह उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों को कम करने में मदद करता है। इससे खुदरा महंगाई कम होती है, जो भारतीय रिजर्व बैंक को ब्याज दरें कम करने के लिए जगह दे सकती है।
इससे आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा।तेल आयात पर कम खर्च होने से सरकार के पास अपने बजट में अधिक गुंजाइश बचती है।
सरकार इस अतिरिक्त पैसे का उपयोग विकास परियोजनाओं, बुनियादी ढांचे के निवेश या सामाजिक कल्याण योजनाओं पर कर सकती है
या फिर राजकोषीय घाटे को कम करने में मदद कर सकती है।कम ऊर्जा लागत व्यवसायों के लिए ऑपरेटिंग लागत को कम करती है, जिससे उनकी लाभप्रदता बढ़ती है।
यह निवेश को प्रोत्साहित कर सकता है और मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र को बढ़ावा दे सकता है। इससे समग्र आर्थिक बढ़ोतरी को रफ्तार मिलेगी।